Monday, July 4, 2011


युगमंच के एक नाटक " जिन लाहौर नहीं देखियाँ ओ जनमियाँ नहीं " के लिए रचित एक काव्य ...! A beautiful story of partition, love, hatred, religion... its about an old lady's saga and confusion about her life time...

ये क्या असर है . बचपन का सफ़र है ,
वो बागों में यूँ लटकते झूले ,
वो पुरवाई जो हौले से गालों को छू ले I
वो बचपन के दिन जब हम थे फले -फूले, 

वो पतंगों का हवा में सरसराना - लहराना ,
लिपटती पेंचो में खुद का खो जाना ,
वो उंगुलियों के पोरों से कंचों का टकराना ,
खवाबों का हो जैसे बुनना सजाना ....!

मुझे आज उस बचपन की है क्यों याद आई 
क्यों हो गयी मुझे आज से ऐसी रुसवाई 
वो बचपन की होली , जो थी मैंने खेली 
हंसा देती है मुझे आज भी वो रंगों की थैली !

होली को मैंने आज जब देखा 
इक काँटा सा चुभ गया दिल में तीखा ,
लहू की नदी थी या खून का था छिंटा,
कहीं इन में तो नहीं खो गया मेरा बेटा !
खुदा के बाशिंदे क्यों जल रहे मर रहे ,
क्यों नहीं वो बचपन के से दिन रहे !

कहाँ खो गयी वो खिलखिलाती सी हंसी 
क्यों हूँ आज मै भी डरी डरी सी ...
होश क्यों नहीं की अब मैं कहाँ हूँ ,
या भटकती यादों की गलियों का कारवां हूँ ...

ऐ खुदा ! थाम ले मुझे अपने दामन में ...
या भटकने दे मुझे ऐसे ही 
बचपन के आँगन में ...!! 



1 comment:

  1. Especially dedicated to Nanu da ( Nirmal Pandey) and Zubeyer...I almost cried that day... when they put music on my poetry and it sounded so beautiful... never knew that music can be such a beautiful dressing to one's verses... RIP Nanu da.. May your soul rest in peace...

    wonder where Zubyer is though... :).... God bless!

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