Saturday, September 17, 2011

ख्वाबों कि तासीर जब हम समझने चले ..

ज़र्रा ज़र्रा ख्वाहिशें कुछ ऐसी लिपटने लगी ,

इक तस्वीर उभारी कुछ ऐसी दिल में मेरे ..

ज़ाखिर- ऐ - अलफ़ाज़ भी कुछ सिमट से गए ,

वो तिलिस्म था या मेरे खाव्बों का घरौंदा...

कुछ यकीं सा हुआ ... कुछ यूँ ही बिखर सा गया ..!!