Tuesday, November 21, 2017

लहू के रंग - १ ( सरदारा !!)

लहू के रंग - १ 

सरदारा !!

माथे की पेशानियाँ और हाथों की झुर्रियाँ उम्र को दरकिनार कर फटाफट जोड़ घटाव में लगी थीं। रोटियां बनाते बनाते बावर्चीखाने का जायजा लिया जा रहा था , बिरयानी बन चुकी थी , रायता भी तैयार था , मटन कोरमा की महक तो पुरे घर में घूम रही थी।  बस अब रोटियां बनानी बाकी रह गयी थी ,  चकले में बेलन ऐसे चल रहा था मानो कोई बुलडोज़र से सड़क को गोलाई में सपाट कर रहा हो , और फिर उसी ही तीव्रता से रोटी हाथों में धाप पाती हुई सीधे तवे पर।  अगर  इस तन्द्रा को कोई तोड़ सकता था तो वो थी छोटे से नटखट यासेर की आवाज़।   

४ - ५ साल  की उम्र के छोटे से यास्सेर तो एक दो बार रसोई खाने में ताका झाँखी भी कर चुके थे। उनके अंदर भी एक उतावलापन नज़र आ रहा था मानो किसी के आने का उन्हें भी बेहद इंतज़ार हो।  आखिर हो भी क्यों ना , सरदारा बीबी के आँखों के तारे जो थे , बचपन से ही उन्होंने ना जाने कितनी कहानियां उनकी गोद में नींद के झोंके लेते लेते सुनी थी। और आज  बिब्बी ने उन्हें पूरी दुनिया सबसे महत्वपूर्ण कार्य जो दिया था. नन्हे यास्सेर  ने बावर्ची खाने  और ड्राइंग रूम के बीच रखे डाइनिंग टेबल पर अपने को ऐसे एंगल पर बैठा लिया था जहाँ से उनकी निगाह  ड्राइंग रूम में लगे बड़े से टीवी पर और बावर्ची खाने में रोटियां बेलती बिब्बी दोनों ही पर आसानी से पहुंच जाती।  और डाइनिंग टेबल भी उन्हें इस वक़्त किसी क्रिकेट कमेंट्री बॉक्स से कम नहीं नज़र आ रहा था, वह भी पुरे जोश में अपने को वसीम अकरम से कम ना समझते हुए पुरे रिएक्शन के साथ टीवी के प्रोग्राम की कमेंट्री दे रहे थे।  

काश! ऐसी एकाग्रचित्तता अगर वह पड़ने में भी लगते तो अव्वल दर्ज़े में पास होना उनके  बाए हाथ का खेल होता।  पर पड़ने लिखने में उनका कोई इंटरेस्ट नहीं था. उन्हें तो बिब्बी की कहानियों में जीना बहुत पसंद था।  कितनी स्वप्निल सी, मनमोहक दुनिया में वो ले जाती थीं , वह अपने को बिब्बी की कहानियों का एक अहम् किरदार समझते थे।  

पर आज का दिन तो कुछ ज़्यादा ही ख़ास था , आज बिब्बी की दुनिया की एक हक़ीक़त से उन्हें रूबरू जो होना था।  टीवी में विज्ञापन आने शुरू हो गए थे , उन्होंने  बिब्बी को ज़ोर से आवाज़ लगाईं ," बिब्बी ,आइये ,अब तो बस पांच मिनट के  अंदर ही फिल्म शुरू जायेगी , जल्दी आइये। .. !!"

यह कह कर यास्सेर  ज़ोर से छलांग लगाकर बावर्ची खाने पहुंचे,  देखा तो बिब्बी में भी अपना काम पूरा कर लिया था , अपने दुपट्टे से माथे का पसीना पोंछते हुए , मुस्कुरा कर यास्सेर  की बलाइयाँ लेते हुए बोली , " अल्लाह ताला तुम्हे खैर बक्शे , तुम्हे लम्बी उम्र दे और तुम्हारी सारी ख्वाहिशें पूरी करें " ...  और फिर यास्सेर  का हाथ पकड़ , तेज़ कदमो से बढ़ती हुई ड्राइंग रूम के कारपेट में एक कोने में बैठ गयी।  उनकी टाइमिंग भी लाजवाब थी ,जैसे फिल्म भी शुरू होने के लिए उनका इंतज़ार कर रही हो।   

यास्सेर  भी उनकी गोद में ऐसे आकर बैठ गए जैसे कोई सिंहासन उनके लिए रखा हुआ हो।  सरदारा ने उन्हें लाड़ से अपने आगोश  में लिया और धीमे से बोलीं , " यास्सेर बाबा आपको पता है ना , इस पुरे जहाँ में हमारी आँखों के दो ही तारे हैं , एक आप हैं , और दूसरे देखिये सारी  दुनिया में सितारा बन के चमक  रहे हैं ", उनका वाक्य अभी ख़त्म भी नहीं हुआ था की टीवी पर 'शोले' फिल्म का आगाज़ हुआ , सामने बड़ा  सा अमिताभ बच्चन का चेहरा ,स्क्रीन  पर चमक उठा. 

यास्सेर  की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था और उनकी निगाह अमिताभ बच्चन पर मन्त्र मुग्ध सी टिकी रह गयीं। ये उनकी  सबसे  पसंददीदा फिल्म थी , फिल्म के साथ साथ उन्हें बिब्बी की निजी ज़िन्दगी के कई किस्से भी सुनने को मिलते थे, लेकिन वो भी तब ,जब बिब्बी का दिल करता।  किसी की  मज़ाल है की अमिताभ बच्चन की कोई फिल्म आ रही हो और उन्हें कोई उस बीच डिस्टर्ब कर दे ..  उसकी तो खैर नहीं थी।  'शोले '  फिल्म को लेकर तो वह काफी संजीदा हो जाती थीं । फिल्म के  आखिरी सीन में जैसे ही अमिताभ बच्चन का इन्तकाल होता, सरदारा की हालत बेहद नाजुक हो जाती। वे तड़प उठतीं और छाती पीट पीट कर रोतीं ," हाय मेरे पुत्तर ने क्या गुनाह किया है , एक तो वो वैसे ही अपनी अम्मी से जुदा है और फिर ये बेरहम उसे अपनी फिल्म में दुनिया से भी रुखसत कर रहे हैं , हाय अल्लाह , रहम कर !! मुझे मेरे बेटे से मिला दे , उसे मेरी उम्र दे दे , अल्लाह रहम कर। .!!... "

यास्सेर की आँखों से भी बिब्बी की  सिसकियाँ झिलमिलातीं , आखिर बिब्बी के हमदर्द वो ही तो थे , बिब्बी के आगोश में , उनकी सिसकियों में झूलते हुए वो भी बिब्बी के साथ फिल्म वालों को कोसते की क्या जरुरत थी जय ( अमिताभ बच्चन ) को मार देने की , आखिर में  उन्हें ज़िंदा भी तो दिखाया जा सकता था। मन ही मन सोचते , काश जय ज़िंदा रहता , बिब्बी भी खुश रहती और उनकी ऐसी हालत ना होती।   

ऐसा अमूमन हर बार होता , अमिताभ बच्चन की कोई भी फिल्म हो , सरदारा उन्हें पुरे गौर से मन्त्र मुग्ध हो देखती ,  लाहौर में वैसे भी हिंदी फिल्मे कम ही दिखाई जाती थी , उनमे से उन्हें अमिताभ बच्चन की फिल्मों का बेसब्री से इंतज़ार होता।  और हो भी क्यों ना , बात ही कुछ ऐसी थी ..... 

 ईस्ट पंजाब की रहने वाली सरदारा खेत खलिहानों के बीच अपनी एकलौती औलाद की किलकारियों के डूब, जीवन जी रहीं  थी।  एक बड़ी सी कोठी और खेत खलिहान ।  उनके शौहर का इंतकाल , निकाह के ३ साल के अंदर ही  गहरी बीमारी से हो गया था ।  सरदारा तब पेट से थी , असलम के पैदा होने के बाद जैसे दोबारा जीने की चाह उमड़ने लगी ,  लेकिन अपने बेटे  की मौत का सदमा  उसके सास- ससुर बर्दाश्त नहीं  कर पाए  और साल भर के अंदर ही उन दोनों का इन्तेकाल भी हो गया। सरदारा का अब  सारा समय उसके बेटे असलम के चारों तरफ गुजरता था।  अपने ग़म  भुला कर धीरे धीरे अपनी सारी खुशियां अपने बेटे में ढूंढ़ने लगीं थी । देखते ही देखते कुछ साल कैसे बीते उसे पता ही नहीं चला।  जिंदगी में कुछ पल सुकून के आ बैठे थे, पर उसे क्या मालूम था की उसकी ये खुशियां चन्द लम्हों की ही हैं।  

सन १९४७ की बात है।  पूरा हिन्दुस्तान दो मुल्कों में बँट गया था। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था की अब इसके आगे क्या।  जितने मुँह उतनी बातें। ईस्ट पंजाब का हिस्सा भारत की तरफ आया था।  सरदारा के  गाँव के मुसलमानों ने तय किया की वो अपने नए मुल्क पाकिस्तान जाएंगे।  सबने मिल कर तय किया था तो सरदारा को भी उस निर्णय पर हामी भरनी पड़ी।  हालांकि कुछ एक ने  ढाँढस भी बँधाया , आज़ादी के साथ तोहफे में नया मुल्क , जीवन में नयी रौशनी लेकर आएगा। और ईस्ट पंजाब से पकिस्तान जाना तो मुश्किल भी नहीं था , बस नयी खींची सरहद की लकीरों को पार करने के लिए चंद किलोमीटर का सफर ही तो करना था।  

सरदारा की आँखें भी असलम के भविष्य का सोचकर सब्ज़बाग़ बुनने लगीं।  वह भी पाकिस्तान जाने को तैयार हो गयीं।  
अभी मग़रिब की नमाज़ अदा करी ही थी की दीवान साहब का फरमान आ गया , रात होते ही कारवां सरहद पार करेगा ताकि तड़के ही फ़ज्र का सदका पाकिस्तान  सरज़मी पर किया जाए।  ख्याल तो अच्छा था , लेकिन एक उदासी भी थी,  अपना घर बार छोड़ कर किसी नयी जगह जा कर बस जाना कोई आसान बात तो थी नहीं।  सरदारा ने मायूस हो  होकर एक गहरी साँस ली और फिर नए मुल्क  में असलम के सुनहरे भविष्य का सोचकर सामान बांधने लगी।  पर इस  दिल का क्या करे , ना जाने क्यों सुबह से ही सरदारा को अंदर  बेहद घबराहट सी हो रही थी। अफवाहों का दौर भी चल रहा था , अजीब अजीब से हैवानियत भरे किस्से सुनाई पड़ रहे थे, उसकी समझ में नहीं आ रहा था की सच क्या  और  झूठ क्या है।   वह गहरी साँस लेती , अपने दिल को समझाती  की सब ठीक है और सब अच्छा ही होगा और फिर सामान बांधने लगती। 

रात होते ही सरदारा और असलम दीवान साहब के कहे मुताबिक चौक पर आ पहुँचे , वहाँ पहले से ही और लोग मौजूद थे। सब एक घबराई सी मुस्कराहट के साथ एक  दूसरे का इस्तेकबाल कर  रहे थे।  खैर , समय पर कारवां निकल पड़ा।  कुछ ऐसा दौर चला की सब पैदल ही अपनी सरजमीं से अलाहदा हो , एक नए मुल्क की तरफ भारी क़दमों से निकल पड़े।  सरदारा  अपने बेटे असलम का हाथ पकड़ कर एक  नयी उम्मीद के साथ , अपने इस नए मुल्क के लिए रवाना हुई। काफिला सरहद के बिलकुल करीब पहुँच चूका था , कुछ लोगों में जोश भरने लगा और अचानक से 'अल्लाह हु अकबर ' के नारे गूंजने लगे। सरहद के दोनों तरफ से लोग अपने अपने नए मुल्क के लिए रवाना तो हुए थे  पर दोनों ही तरफ से आने वाले काफिलों में अनजानी  घबराहट बसी हुई थी , साँसों में घुटन , और तो और हवा में भी रुसवाइयों का अजीब सा तंज समाया हुआ था।   

सरदारा इस बात को आज तक नहीं समझ पायी की अचानक से उनके काफिले में भगदड़ इन नारों की वजह से हुई या फिर सरहद के उस पार से आते हुए हिन्दुओं के काफिलों के नारों की गूँज से हुई।  इन नारों के बीच ना जाने किसने किस पर  पत्थर फेंका की दोनों ही तरफ काफिलों  में भगदड़ मच गयी।  लोग एक दूसरे को मरने पीटने लगे , बात ऐसी बढ़ गयी कि लोग  एक दूसरे की जान लेने को आमदा हो गए।  ये कैसा भयावह मंजर था , सरदारा के पाँव तो पत्थर बन बैठे , उस माहौल में उसे समझ में ही नहीं आ रहा था की क्या करे।  तभी भीड़ का एक  जथ्था चीखते चिल्लाते हुए आंधी की तरह उसकी तरफ बढ़ता हुआ आया ,  इससे पहले सरदारा कुछ समझ पाती , उस आंधी की चपेट में धक्का खाते हुए वह भी दौड़ने लगी, सामने नया मुल्क उसका इंतज़ार कर रहा था ,दौड़ते हुए मन में बस यही ख्याल , सरहद पार कर लो , फिर ज़िन्दगी सुरक्षित भी  और सुकून भरी भी होगी । लेकिन इस बदहवस सी दौड़ में किसी में पीछे से जोर से धक्का दिया और नन्हे से असलम का हाथ अपनी अम्मी के हाथ से फिसल गया।  सरदारा को जैसे  एहसास हुआ की असलम का हाथ छूट गया है , वह  पलटी , ज़ोर से असलम 'असलम' 'असलम' चीखी , पर उस भीड़ के सैलाब में उसकी चीखें और उसके जिगर के टुकड़े असलम , दोनों ही कहीं खो गए।  उसने  वापस जाने की बहुत कोशिश की , लेकिन  उस बेकाबू भीड़ में उसका कोई जोर नहीं चल पाया , हैवानियत और डर से भरे उस  सैलाब में खिंचती हुई , उस नए मुल्क पकिस्तान की सरजमीं पर उसने कदम रक्खे .... ।  

इस बटवारे की खूनी लकीरों की जख्मी सरदारा , कई सालों तक वह वहीँ सरहद के करीब रिफ्यूजी कैम्पों में पागलों की तरह घूमती रही , असलम को ढूंढ़ती रही... दिल नाउम्मीद नहीं था ,  हमेशा सोचता रहता , असलम एक न एक दिन जरूर मिलेगा , शायद सरहद के उस पार से कभी दौड़ता हुआ उसकी बाहों में आ जाए। हर सुबह एक नयी उम्मीद की असलम मिलेगा , हर शाम नयी सुबह  इंतज़ार, ना जाने कितने साल सरहद के पास गुजर गए।  धीरे धीरे रिफ्यूजी कैंप भी बंद हो गए और नए कसबे बसने लगे।  सरहद पर तो अब दोनों ही  तरफ की सेनाओं  का ताँता लग चूका था।  

सरहद की लकीरें खींची तो ज़मीन  पर थी पर सरदारा को  भी  कहीं अंदर ही अंदर लहू लुहान कर गयी थीं। । कहते हैं किसी की रूह तक पहुंचना हो तो उसकी आँखों में दस्तक देनी चाहिए।  सरदारा की आँखें तो बेजान सी हो चुकी थीं।   १९४७ की वो अगस्त की उस भयावह रात  का दर्द सरदारा की आँखों से आज भी झलकता था । 

वो तो भला हो सलीमा बेगम का जिन्होंने उसे संभाला  और अपने घर पनाह दी।  सरदारा को यहाँ काफी सुकून मिलता था ,  एक तो सलीमा बेगम का परिवार किसी भी धर्म को नहीं मानता था , उनकी समझ में पाकिस्तान -हिंदुस्तान महज एक मुल्क के दो  टुकड़े मात्र थे, जैसे दो भाई आपस में रुसवा हो गए हों।  सरदारा की तरह इस परिवार को भी दोनों ही देशों के बीच शान्ति बहाली की उम्मीद थी।  उनकी इस उमीदों के साथ सरदारा की उम्मीद की लौ भी जलती रहती और उसे भी लगता एक ना एक दिन वह अपने जिगर के टुकड़े से जरूर मिलेगी। सलीमा बी लाहौर में रहती थीं और सरहद से सटे हुए लाहौर में रह कर , उसकी उमीदों की लौ टिमटिमाती रहती।   

अपने लाड़ले  को खो देने का सदमा सरदारा  के दिमाग में गहरी पैठ कर चूका था , जख्म इतनी गहराई तक दिमाग में बैठ चुके थे की उसने पहली बार जब अमिताभ बच्चन की तस्वीर किसी मैगज़ीन में देखी , वह उस तस्वीर  को घूरते रह गयीं , ना जाने क्यों उसे यकीं हो चला की अमिताभ बच्चन ही उनका असलम है। यकीं इतना अडिग था कि दुनिया का कोई भी तर्क उनके इस यकीं को हिला नहीं सकता था। वह जब भी अमिताभ बच्चन को टी.वी में देखती तो आँखों से उनकी ममता , आँसुओं का सैलाब बन उमड़ पड़ती। अमिताभ बच्चन के फ़िल्मी किरदाररों  से टी.वी पर अक्सर बातचीत करती ," पुत्तर तू इधर आ जा , देख तेरी माँ तेरा इधर इंतज़ार कर रही है। " अक्सर अपनी रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी का लेखा जोखा , अमिताभ बच्चन के फिल्माए  किरदारों  को सुनाया जाता था। 

इसी सिलसिले में एक बार वे सलीमा बेगम से बेहद नाराज़ हो गयी थीं।  सलीमा हाश्मी , एक मशहूर आर्टिस्ट हैं और इसी सिलसिले में  उन्हें रूस में किसी कॉन्फरेंस के लिए जाना पड़ा।  वहां की एम्बेसडर उनकी दोस्त थीं और अमिताभ भी उस समय किसी शूटिंग के सिलसिले में रूस में थे।  शाम को कांफ्रेंस में उनसे मिलने का अवसर सलीमा बेगम को उनकी एम्बेसडर दोस्त की वजह से मिला।  अमिताभ अपने चरम पर थे और उनके चारों  तरफ उनके फैंस का जमघट होने की वजह से  सलीमा बी के  साथ बस दुआ सलामगी  ही हो  पायी। जब वे वापस लौट कर आयीं तो उन्होंने सरदारा से इस बात  का ज़िक्र किया ,  सुनते ही सरदारा पहले तो ख़ुशी  से झूम उठीं,  लेकिन दूसरे ही पल उतनी ही मायूस भी हो बैठीं जब उन्हें मालूम हुआ की अमिताभ बच्चन को सलीमा बी ने बताया ही नहीं की उनकी अम्मी लाहौर में उनका इंतज़ार कर रही हैं।  इस बात  को लेकर  सरदारा सलीमा बेगम से कई महीनों तक नाराज़ रहीं  थी ।  

अमिताभ के पोस्टर को छाती से लगाकर ना जाने कितनी रातें सिसकियाँ लेकर गुज़ारी हों , ये तो अब गिनतियों से भी परे था।  सलीमा बी के अब्बाजान, मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ का एक मशहूर शेर , सरदारा अक्सर गुनगुनाया करतीं ,
"दर खुला देखा तो, शायद तुम्हे फिर देख सकें ,
 बंद होगा तो , सदा दे के चले जाएंगे ..... !! "

इस शेर के सहारे तो सरदारा ने कई बरस गुजार दिए तह थे , दिल में हालांकि उम्मीद हमेशा कायम रही की जिस भी दिन उनके बेटे अमिताभ बच्चन को पता चलेगा की उनकी अम्मी जिसने उन्हें जना है अभी भी ज़िंदा हैं और उसका उन्हें बेसब्री से इंतज़ार है, तो अमिताभ जरूर उनसे मिलने लाहौर आएंगे।   

फिल्म ख़त्म हो चुकी थी , उनकी सिसकियाँ  भी अब धीरे धीरे कम हो गयीं थीं।  सलीमा बेगम के बेटे यास्सेर के हाथ हौले से सरदारा के गालों पर जा कर, उनके आंसू पोछते हुए धीमे  से बोले  ," बिब्बी जान , मैं हूँ ना आपके साथ, आप ऐसे ना रोएं ". यास्सेर  की नन्ही हथेलियाँ , अल्लाह ताला की इबादत की तरह उनकी रूह को सुकून पहुँचा गयीं।  उनका एहसास होते ही सरदारा ने यास्सेर को गले से लगा लिया, उनकी  खूब सारी बलाइयाँ लेने लगीं  और उनकी सलामती के लिए दुआएं पड़ने लगीं।   अमिताभ बच्चन की फिल्म देखने की इस पूरी प्रक्रिया में यास्सेर  का ये सबसे खूबसूरत लम्हा होता और वह इस पल का पूरी बेसब्री से अगली अमिताभ बच्चन की फिल्म आने तक इंतज़ार करते।  

सरदारा अपनी आखिरी साँस तक नाउम्मीद  नहीं रहीं ,  जीवन के अपने अंतिम लम्हों में वह पूरी उम्मीद में बैठी थीं की कभी ना कभी, ना जाने कितनो के लहू से सींची ये लकीर ख़त्म जरूर होगी ,  और तब बिना किसी रोक टोक के हिन्दुस्तान जा सकेंगी और अपने बेटे से बेहिचक मिल सकेंगी।

सरदारा चली तो गयीं  लेकिन आज भी उनकी उस उम्मीद के दामन को पकड़ने का मन करता है.  कई ऐसे ही दिलों की दास्ताँ को दस्तक देने का जी करता है , शायद आने वाली पीड़ी , इन्ही दास्तानों से कुछ सीखे और इस इस दुःख और दर्द से ऊपर उठ कर ,अमन - चैन ,  प्रेम -सौहार्द्य की भाषा सीख सके।  शायद कुछ  छोटी छोटी कोशिशों से अमन और शान्ति के परचम को लहराया जा सके।

फैज़ साहब के एक मशहूर शेर को फिर  गुनगुनाने का जी चाहता है .. 

दिल नाउम्मीद तो नहीं , नाकाम ही तो है ,
लम्बी है ग़म की  शाम, मगर  शाम ही तो है ...!!  "

~ नन्दिता  पाण्डेय 
21 .11.2017 


PS.: सरदारा की दास्ताँ खुद सलीमा हाश्मी जी ने एक मुलाकात के दौरान बताई थी।  कहानी के कुछ एक अंश काल्पनिक हैं पर मूलतः कहानी सत्य घटनाओं पर आधारित है।


Wednesday, November 19, 2014

कौन कहता है मुहबत्त की ज़ुबाँ  नहीं होती ……।। 

झुरमुटों से झांकती,
दरख्तों में लिखी इबादतें।
सदियों से,
बन इश्क़ की सदा 
गुनगुनाती रही हैं फरियादें ...!! 

वक़्त और जहां से बेखबर ,
पेड़ों के आगोश में सिमटी 
देखो ,
आज भी कैसे  
ले रही हैं जीवन्त साँसें .... !!!.. 

नन्दिता ( 19/11/2014) अभी अभी  :) 



Monday, November 3, 2014

"शाम ढलने लगी
सूरज रूमानी हो इठलाने लगा ,
शर्म से हुई सुरमयी धरा
हौले हौले मुस्कुराने लगी।

आखिर , इंतज़ार उसे भी था ,
दिन भर की ताप के बाद ,
सुनहरे से इस मिलन का। 

संध्या के पश्चात की निशा ,
अब उसे डरा नहीं पाती ,
आजकल जाते जाते ,
सूर्य पहना जो जाता है ,
गले में उसके
अपनी ऊर्जा से प्रदीप्त हुईं
लैम्पपोस्ट की ज्वलंत लड़ियाँ ,

मानो धरा से कह रहा हो ,
मेरे न होने पर भी
मेरे होने का एहसास
छोड़े जा रहा हूँ तुम्हारे पास ,

प्रिय , सब्र रखो ,
सुबह फिर आऊंगा ,
भर दूंगा सिंदूरी रंग से ,
फिर तुम्हारी माँग .....,

और यूँ ही चलता रहा
धरा और सूर्य का
रूमानी सा ये रिश्ता
सदियों से साल दर साल...। ."
~ नन्दिता पाण्डेय ( 30/10/14) 


Tuesday, June 17, 2014

नयी सुबह ,
नयी शुरुआत,
पुलकित सा मन,
रचने लगा 
नया इतिहास.. 

और मैं ,
काल चक्र में ,
अवतरित हो रही 
नवरचित कल्पना 
की साक्षी .. 

लिखने लगी हूँ 
फिर ,
एक नया अध्याय  
आत्मस्वरूप का .... !!

नन्दिता ( 17/06/2014)

Thursday, June 5, 2014



"ज़ुबाँ की तासीर ऐसी रहे ,
जैसे, प्रेम की धारा बहती हो ....

हाँ, आज ये शम्मा ना बुझे , 
जश्न ए मोहब्बत कुछ ऐसा हो...!!!" . 

~ नंदिता (२५/०५/१४ )

"घुप्प से फैले इस अँधेरे में 
पड़ने लगी जब हल्की फुहारें ...

तिमिरण सम जीवन में 
नवोदित हुईं तिमिरारी बहारें...।" . 

~ नन्दिता ( ३०/०५/१४) ....... After the Delhi Storm ...  

तिमिरण - पूर्ण अन्धकार , तिमिरारी - सूर्य की रौशनी

Wednesday, April 30, 2014

थोड़ा रूमानी सा ये एहसास ... !! :)

"तकिये के लिहाफ में ,
 बसी तेरी खुशबु....
 तेरे न होने पर भी 
 तेरे होने का
 एहसास दिला जाती हैं।   

सुबह ,चाय के कप से 
उड़ते गर्म फ़ाहे .... 
तेरी आँखों में बसी 
बदमाशियों का,
अंदाज़ बयां कर जाती हैं। 

तेरे न रहने पर भी ,
तेरे  क़दमों की आहट का 
एक नरम सा एहसास.... 
पर्दों में लटकी नन्ही घंटियों 
की आवाज़ करा जाती है। 

कुछ ऐसी ही होती हैं , 
दिल से जुड़े रिश्तों की ज़ुबाँ... 
दूरियों में भी , 
एक खूबसूरत से बंधन का,
एहसास करा जाती हैं। "

नंदिता ( ३०/०४/२०१४ )