Monday, July 4, 2011

आज फिर
जली है लौ
उम्मीदों की-
आज फिर ,
झाँका है किसीने
यादों के झरोंखो से !

वो खिलखिलाती सी हंसी ,
वो निगाहों का दौर ,
छिपे हुए थे जिसमें ..
कुछ शरारत , कुछ इजहार
गर करो गौर !

वो नजरे चुराना ,
वो पलकों का उठाना
और फिर शर्म से झुक जाना ,
उन झील सी आँखों में
खुद का खो जाना !

वो एक आहट पर
तेज हो जाना -
धडकनों का !

वो कोशिश करना
उन नजरों से बचकर
उन्ही निगाहों में
देखने की अपने अक्स को !

वो अंखियों को चुराकर,
अंखियों से बहुत कुछ कह देना
और फिर ;
उन अंखियों के झरोखों का
अपने पट बंद कर देना
रह जाना सिमट कर फिर ,
यादों के झरोखों में !

बरसों बाद,
आज फिर ,
झाँका है तुमने
इन झरोखों से !

मुस्कुराहटों से अपनी
दीप्त कर दो एक बार फिर
टिमटिमाती इस लौ को -
उम्मीद की , इजहार की
इंतज़ार की , हाँ इकरार की !

हाँ बरसों बाद
एक बार फिर चले आओ
तुम -
मेरी जिंदगी , मेरा अस्तित्व !!
1-10-94

3 comments:

  1. बहुत खूब... कोमल मन की कोमल रचना...

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  2. छुपा किसी संदूक में बंद
    वो वसन्त
    जो खुली आँखों के
    सपनों में गुजरा था
    किसी कापी में बंधी हुई
    वो गुलाब की खुशबू
    रह रह कर खट खटती है
    कभी किवाड़ कभी खिड़कियाँ
    वो अधलिखी चिट्ठी
    मुँह चीढ़ाती है
    चेहरे बनती है
    किसी रुमाल से लिपटी यादें
    थोडा गुदगुदाती हैं
    टूटी हुई वो पुरानी पायल
    आँखों में सावन भर जाती हैं
    वो सावन
    जो भीगी पलकों में गुज़ारा था
    वो सावन
    अब भी किसी संदूक में बंद है

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  3. beautiful poem Skand... keep writing... :)

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