आज फिर
जली है लौ
उम्मीदों की-
आज फिर ,
झाँका है किसीने
यादों के झरोंखो से !
वो खिलखिलाती सी हंसी ,
वो निगाहों का दौर ,
छिपे हुए थे जिसमें ..
कुछ शरारत , कुछ इजहार
गर करो गौर !
वो नजरे चुराना ,
वो पलकों का उठाना
और फिर शर्म से झुक जाना ,
उन झील सी आँखों में
खुद का खो जाना !
वो एक आहट पर
तेज हो जाना -
धडकनों का !
वो कोशिश करना
उन नजरों से बचकर
उन्ही निगाहों में
देखने की अपने अक्स को !
वो अंखियों को चुराकर,
अंखियों से बहुत कुछ कह देना
और फिर ;
उन अंखियों के झरोखों का
अपने पट बंद कर देना
रह जाना सिमट कर फिर ,
यादों के झरोखों में !
बरसों बाद,
आज फिर ,
झाँका है तुमने
इन झरोखों से !
मुस्कुराहटों से अपनी
दीप्त कर दो एक बार फिर
टिमटिमाती इस लौ को -
उम्मीद की , इजहार की
इंतज़ार की , हाँ इकरार की !
हाँ बरसों बाद
एक बार फिर चले आओ
तुम -
मेरी जिंदगी , मेरा अस्तित्व !!
1-10-94
जली है लौ
उम्मीदों की-
आज फिर ,
झाँका है किसीने
यादों के झरोंखो से !
वो खिलखिलाती सी हंसी ,
वो निगाहों का दौर ,
छिपे हुए थे जिसमें ..
कुछ शरारत , कुछ इजहार
गर करो गौर !
वो नजरे चुराना ,
वो पलकों का उठाना
और फिर शर्म से झुक जाना ,
उन झील सी आँखों में
खुद का खो जाना !
वो एक आहट पर
तेज हो जाना -
धडकनों का !
वो कोशिश करना
उन नजरों से बचकर
उन्ही निगाहों में
देखने की अपने अक्स को !
वो अंखियों को चुराकर,
अंखियों से बहुत कुछ कह देना
और फिर ;
उन अंखियों के झरोखों का
अपने पट बंद कर देना
रह जाना सिमट कर फिर ,
यादों के झरोखों में !
बरसों बाद,
आज फिर ,
झाँका है तुमने
इन झरोखों से !
मुस्कुराहटों से अपनी
दीप्त कर दो एक बार फिर
टिमटिमाती इस लौ को -
उम्मीद की , इजहार की
इंतज़ार की , हाँ इकरार की !
हाँ बरसों बाद
एक बार फिर चले आओ
तुम -
मेरी जिंदगी , मेरा अस्तित्व !!
1-10-94
बहुत खूब... कोमल मन की कोमल रचना...
ReplyDeleteछुपा किसी संदूक में बंद
ReplyDeleteवो वसन्त
जो खुली आँखों के
सपनों में गुजरा था
किसी कापी में बंधी हुई
वो गुलाब की खुशबू
रह रह कर खट खटती है
कभी किवाड़ कभी खिड़कियाँ
वो अधलिखी चिट्ठी
मुँह चीढ़ाती है
चेहरे बनती है
किसी रुमाल से लिपटी यादें
थोडा गुदगुदाती हैं
टूटी हुई वो पुरानी पायल
आँखों में सावन भर जाती हैं
वो सावन
जो भीगी पलकों में गुज़ारा था
वो सावन
अब भी किसी संदूक में बंद है
beautiful poem Skand... keep writing... :)
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