पेड़-पौधे , ये वादी
और हर रोज़ की तरह
डूबता ये उदास सूर्य ...
हाँ साक्षी हैं ये -
तुम्हारे इंतज़ार का ,
जो किया है मैंने
हर पल - हर क्षण... !
आज सालों बाद
तुम्हारी बाहों ने,
एहसास करा दिया है मुझे
फिर उस सिन्दूरी शाम का ...
जिसे गुज़रे वर्षों बीत गए हैं !
उस बार की तरह
इस सुबह भी
तुम मुस्कुराये और बोले -
" ब्योली जाना है मुझे
फ़ौज की नौकरी है !"
और मेरी उदास आँखे
बोल उठी -
"उठ जाता है बोझ
लकड़ी के गट्ठरों का
पर बिरह का यह बोझ
अब उठाये नहीं उठता !"
तुमने मेरे कंधे थपथपाए
और इस बार भी ..
फिर जल्दी आने का
वादा कर चले गए !
हौले से
सांझ ने लाल चुनर ओड़ ली
और हर शाम की तरह
इस शाम भी
शरीक हो गयी
मेरी उदासी में !
पेड़ों की झुरमुटों से
ना जाने कब ....
दबे पाँव आकर ,
कोहरे की चादर
लिपट गयी मुझसे ...!
पता नहीं
आँखों में समाई ये नमी
कोहरे की है या ...
तुम्हारे जाते पदचापों को सुन
अन्दर कहीं
मेरा गीला मन
सिसकने लगा है... !
9th May '94
bahut hi badiya likha hai Nandita ,faujiyon ko 1 salam........ keep writing ..
ReplyDeleteThank you... its a very old composition... but I still feel so connected to it.. M happy that you have liked it.. :)
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