सुरमई सी शाम ,
हौले से
धरा को आकर थपकी दे गयी ..
दूर क्षितिज में होने लगा था ,
मिलन
सूरज और धरा का ..
स्वप्न्मुग्ध सी मैं ,
जी रही थी उस पल को ..
साँसों को थामे हुए ..!
इन लम्हों के आगोश में ,
धरा और सूरज ,
थे लजाये - शर्माए से ,
एक दुसरे में लीन ..
मनमोहक सी यह छवि
मनमोहक सी यह छवि
घुलने लगी एक दूजे में
.. ,हौले से .. धीमे धीमे से ..।।
पर ,
मृगतृष्णा से परे ..
सदियों से चले आ रहे ,
मृगतृष्णा से परे ..
सदियों से चले आ रहे ,
काल चक्र के
इस घटना क्रम में ....
धरा और सूरज ..
..
..
क्या कभी एक हो पाए ..?
~ नंदिता ( 18 /10/2012 )
मृगमरीचिका --एक भ्रम --एक प्रश्न ही रहेगा.
ReplyDeleteधन्यवाद !...
Deleteजी हाँ ..
मृगमरीचिका ...
कुछ रिश्तों में भी देती हैं यही अनुभूति ..
डोर की एक छोर ... बांधती है रिश्तों को ..
और दूसरी छोर खींच देती है रेखाएं कई
बनाके उनकी अपनी अपनी परिधि ..।।
utam**
ReplyDeleteDhanyawaad..!!
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