Monday, November 3, 2014

"शाम ढलने लगी
सूरज रूमानी हो इठलाने लगा ,
शर्म से हुई सुरमयी धरा
हौले हौले मुस्कुराने लगी।

आखिर , इंतज़ार उसे भी था ,
दिन भर की ताप के बाद ,
सुनहरे से इस मिलन का। 

संध्या के पश्चात की निशा ,
अब उसे डरा नहीं पाती ,
आजकल जाते जाते ,
सूर्य पहना जो जाता है ,
गले में उसके
अपनी ऊर्जा से प्रदीप्त हुईं
लैम्पपोस्ट की ज्वलंत लड़ियाँ ,

मानो धरा से कह रहा हो ,
मेरे न होने पर भी
मेरे होने का एहसास
छोड़े जा रहा हूँ तुम्हारे पास ,

प्रिय , सब्र रखो ,
सुबह फिर आऊंगा ,
भर दूंगा सिंदूरी रंग से ,
फिर तुम्हारी माँग .....,

और यूँ ही चलता रहा
धरा और सूर्य का
रूमानी सा ये रिश्ता
सदियों से साल दर साल...। ."
~ नन्दिता पाण्डेय ( 30/10/14) 


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