महादेव ,
एक छोटी सी शिकायत है तुमसे ..
तुम थे ,
पर्वत, नदी,पेड़,धरा में विलुप्त ..
अविकल सी इस झील में सुप्त ,
अडिग अचल अवस्था में लुप्त
कभी जाने पहचाने से,कभी गुप्त ..!!
और नादाँ मैं ,
चीर स्थितियाँ विक्षिप्त ..
मूक बधिर पाषाण सम
खड़े तुम में, हो आसक्त..
अविरल, ढूँढती रही अपना तत्त्व ..।
पढ़ कर मुंह से वाह वाह ही निकलता हैं
ReplyDeleteसच में बेहद सार्थक रचना है।
बहुत अच्छी लगी
Dhanyawaad..!!.. God bless you too.. :)
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