मैं इक आज़ाद ,
उन्मुक्त पवन ..
बहती रही मदमस्त
धरा हो या फिर हो गगन ..
बेफिक्र नदी सी
अठखेलियाँ खेलती
उछलती फुदकती
बहती रही ..
छन छन , छन छन।
प्रेम फकीरा ..
पर ,तुम्हारी दीं
इन उपाधियों के बंधन
में तो तप रही है
मेरी प्रेम अगन .. ।।
फिर क्यों ,
अपने इस फ़कीरी बंधन
का दे रहे हो आज मुझे
दोष , ऐसा सघन ..।।
गर प्रीत का
करते नहीं तुम हनन
गर,
बाँध लेते साहिल एक
बाहों का अपनी , चौघन ..।
देख लेते तुम भी ..
तूफानी, तब ये
जलधर घनन,
सिमट जाता कैसे ,
बाहों में तुम्हारी
बनके इक ठहराव गहन ...।। ..
प्रेम फ़कीरा ..
जाने दो ,
न कर पाओगे तुम
ये प्रीत सघन ..।
रहने दो,
मुझे यूँ ही
बनके प्रेम जोगन ..!!..
- नंदिता
ReplyDeletesabke bas ki bat nahi ye preet nibhana !
beautifully expressed Nandita !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति !
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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Banao Khilao : Thank you... God bless!
ReplyDeleteKaliprasad ji: Dhanyawaad..!.. zaroor... will check right away.. warm regards!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति....
ReplyDeleteDhanyawaad Kavita ji... :)
ReplyDeleteआप की इस रचना में खास यह पंक्तियाँ बहुत पसंद आई है ..
ReplyDeleteप्रेम फ़कीरा ..
जाने दो ,
न कर पाओगे तुम
ये प्रीत सघन ..।
रहने दो,
मुझे यूँ ही
बनके प्रेम जोगन ..!!..
धन्यवाद ..!!... :)
Deletebahut acha feel hua pad kr.
ReplyDeleteDhanyawaad Anil ji.. God bless,..!!
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