Saturday, September 17, 2011

ख्वाबों कि तासीर जब हम समझने चले ..

ज़र्रा ज़र्रा ख्वाहिशें कुछ ऐसी लिपटने लगी ,

इक तस्वीर उभारी कुछ ऐसी दिल में मेरे ..

ज़ाखिर- ऐ - अलफ़ाज़ भी कुछ सिमट से गए ,

वो तिलिस्म था या मेरे खाव्बों का घरौंदा...

कुछ यकीं सा हुआ ... कुछ यूँ ही बिखर सा गया ..!!



4 comments:

  1. बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में

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  2. कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
    वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
    डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो NO करें ..सेव करें ..बस हो गया .

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  3. Thank you... have done that... stay blessed!!..thanks for visiting and your valuable comments...!!

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  4. ossum !
    कुछ यूँ ही बिखर सा गया ....

    अब उम्र बीतेगी उसे समेटते !

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