ख्वाबों कि तासीर जब हम समझने चले ..
ज़र्रा ज़र्रा ख्वाहिशें कुछ ऐसी लिपटने लगी ,
इक तस्वीर उभारी कुछ ऐसी दिल में मेरे ..
ज़ाखिर- ऐ - अलफ़ाज़ भी कुछ सिमट से गए ,
वो तिलिस्म था या मेरे खाव्बों का घरौंदा...
कुछ यकीं सा हुआ ... कुछ यूँ ही बिखर सा गया ..!!