Dedicated to Gulzaar Sahab on his 77th birthday... !!
इक गीला सा बादल ...
पलकों के आगोश में
जैसे हो कुछ डूबा डूबा सा ...!
ढुंडती हूँ जब मैं उसका सिरा ,
लिपट जाता कुछ हलक़ में वो ऐसे ..
जैसे इक दर्द हो वहां
कुछ यूँ ही फंसा फंसा सा ...!
इक टीस सी उठती है ज़ेहन में मेरे ..
क्यों एहसास दिला जाती है ..
कुछ रुंधा रुंधा सा ...!!
इक झील तेरे नाम की,
बसी है इस दिल में ..
बादल का ये छोर शायद ,
यहीं कहीं पर है डूबा डूबा सा ..!
इस झील में पड़ी हैं
बर्फ की ऐसी सिलवटें ..
की एहसास वो इक तेरा ,
रह गया उसके नीचे,
शायद ,
कुछ यूँ ही जमा जमा सा ..!
ये ज़ख्म तेरा दिया
इतना गहरा क्यों है ...?
कि तेरी हर इक याद ,
बन गयी है इक सन्नाटा...!
और तेरे वजूद का ये पन्ना,
रह गया ,
कुछ यूँ ही कोरा कोरा सा ..!!
उँगलियों के पोरों से
उस झील को जब छुआ मैंने..
उन फिसलती लकीरों में
धुन्धुलाता सा दिखा तेरा अक्स ..
मानो अब तलक कोहरे में
था जैसे कुछ यूँ ही छुपा छुपा सा ...!
अंखियों में बसा यह गीला बादल
तरसता है आज भी है उस सावन को ..
बहा दे जो ये गुबार ,
इस दरिया ऐ दिल का ..
जो सदियों से है मेरे अन्दर
शायद कुछ यूँ ही थमा थमा सा ..!
हाँ --
इक वो सावन ही तो
मेरा माझी होगा ..
बहा देगा जो,
तेरे नाम का हर इक ज़ख्म ..!
बूंद दर बूंद...
शायद ,
कुछ यूँ ही ज़र्रा- ज़र्रा सा ...!!
नंदिता ( 18th Aug'11)